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“प्रधान पति प्रथा” महिला सशक्तिकरण में बाधक: आइए जानें महिला ग्राम प्रधानों को आखिर क्यों लेना पड़ता है पति का सहारा

आलेख : सईद पठान

देश के ग्रामीण इलाकों में ‘प्रधान पति’ की प्रथा जोरों से प्रचलीत है, जो महिला सशक्तिकरण को बाधित कर रही है, महिला ग्राम प्रधान न तो गांव के विकास में अपना प्रत्यक्ष रूप सहयोग कर पाती हैं, न ही कभी कोई कार्यक्रम में जाती हैं, तमाम महिला ग्राम प्रधान हैं जिन्हें कोई भी सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारियां नहीं होती । इसी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक जमहित याचिका डाली गई और सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीरता से लेते हुते केंद्र सरकार को कार्यवाही के लिए निर्देश जारी किया ।

निर्देश के क्रम में प्रधान पति की प्रथा को समाप्त करने के लिए केंद्र सरकार ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है। और एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी की अध्यक्षता में 10 सदस्यीय समिति का गठन  करके 18 राज्यो में अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया है, जो इस प्रथा के कारणों, प्रभावों और इसे खत्म करने के उपायों पर विचार करेगी। समिति में ग्रामीण विकास, सामाजिक विज्ञान, और महिला सशक्तिकरण के विशेषज्ञ शामिल हैं, जो विभिन्न राज्यों में जाकर विस्तृत अध्ययन करेंगे और अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे।

महिला ग्राम प्रधानों को आखिर क्यों लेना पड़ता है पति का सहारा

अक्सर देखा जा रहा है कि महिला ग्राम प्रधानों को अपने पति या अन्य पारिवारिक पुरुष सदस्यों का सहारा लेना पड़ता है, सहारा लेने के पीछे कई सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यावहारिक कारण होते हैं। ये कारण निम्नलिखित हो सकते हैं:

  1. सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाएं: भारतीय समाज के कई ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक रूप से पितृसत्तात्मक व्यवस्था प्रचलित है, जहां महिलाओं की भूमिका सीमित होती है। पुरुषों को अक्सर परिवार का मुखिया और निर्णयकर्ता माना जाता है, जिससे महिलाओं को अपनी जिम्मेदारियों का स्वतंत्र रूप से निर्वहन करने में कठिनाई होती है। इस पितृसत्तात्मक सोच के कारण महिला प्रधानों को निर्णय लेने के लिए पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ता है।
  2. शिक्षा और जागरूकता की कमी: कई महिला ग्राम प्रधानों को शिक्षा और प्रशासनिक कामकाज की जानकारी नहीं होती। उन्हें पंचायत के नियम, कानून, और प्रक्रियाओं की समझ नहीं होती, जिससे वे निर्णय लेने में सक्षम नहीं होतीं। ऐसे में उन्हें अपने पति या किसी अन्य पुरुष सदस्य का सहारा लेना पड़ता है, जो उनके लिए आवश्यक जानकारी और मार्गदर्शन प्रदान कर सके।
  3. पारिवारिक दबाव: कई बार महिला प्रधान पर उनके परिवार, विशेषकर पति का दबाव होता है, जो उन्हें निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं देता। परिवार के पुरुष सदस्य अपने प्रभाव और नियंत्रण को बनाए रखने के लिए महिलाओं को स्वतंत्र रूप से काम करने नहीं देते, और उनके नाम पर खुद ही पंचायत के फैसले लेते हैं।
  4. सामाजिक अस्वीकार्यता: ग्रामीण समाज में कई बार पुरुष प्रधान या अन्य पुरुष नेता महिला प्रधानों को गंभीरता से नहीं लेते। इसके कारण महिला प्रधानों को अपने पद का प्रभावी तरीके से प्रयोग करने में कठिनाई होती है। ऐसे में उन्हें अपने पति या किसी अन्य पुरुष का सहारा लेना पड़ता है, ताकि उनके फैसलों को स्वीकृति मिल सके।
  5. भय और आत्मविश्वास की कमी: कई महिलाएं, विशेष रूप से जो पहली बार पंचायत का चुनाव जीतती हैं, उन्हें काम करने में भय या आत्मविश्वास की कमी होती है। उन्हें डर होता है कि वे गलत फैसले ले सकती हैं, जिससे वे पुरुषों की सलाह पर निर्भर हो जाती हैं।
  6. पारंपरिक भूमिकाओं की अपेक्षा: ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर यह अपेक्षा की जाती है कि महिलाएं घरेलू भूमिकाओं तक ही सीमित रहेंगी। इसलिए, जब वे ग्राम प्रधान बन जाती हैं, तब भी उनसे घरेलू कार्यों को प्राथमिकता देने की अपेक्षा की जाती है, और प्रशासनिक जिम्मेदारियों को संभालने के लिए पुरुषों का सहारा लेना एक सामान्य बात हो जाती है।

इन चुनौतियों को देखते हुए, महिला ग्राम प्रधानों को सशक्त करने के लिए सरकार और सामाजिक संगठनों द्वारा शिक्षा, प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रमों की आवश्यकता है। इससे वे आत्मविश्वास के साथ अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कर सकेंगी और पितृसत्तात्मक संरचनाओं से स्वतंत्र होकर काम कर सकेंगी।

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