मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने ताल ठोंक कर एलान किया है कि अब भारत देश में सिर्फ और केवल वे ही लोग रह सकेंगे, जो “राम-कृष्ण” बोलेंगे। उनके इस कथन की बाकी पैमानों से पड़ताल बाद की बात है, पहले तो यही कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठनों में रहते हुए वे इस ऊंचाई तक पहुंचे हैं, जिस भाजपा के विधायक के रूप में वे मुख्यमंत्री बने हैं, खुद उनके ही हिसाब से यह कुछ ज्यादा ही ऊंची पिनक में कही गयी बेतुकी बात है। बाकियों का क्या होगा, यह बाकी जानें, फिलहाल तो उनके शीर्षस्थ अवतारपुरुष की नागरिकता ही संकट में पड़ने वाली है, जिन्होंने लोकसभा चुनाव नतीजों के आने के बाद अपने चौथाई सदी पुराने “जय श्रीराम” के उदघोष को त्याग कर “जय जगन्नाथ” का जयकारा लगाया था। यूं संकट में तो पहले से ही आतंरिक संकट में घिरे योगी आदित्यनाथ की नागरिकता भी पड़ने वाली है, जिनका नाथ सम्प्रदाय कुछ ज्यादा ही अलग विचार रखता है। यह राजनाथ सिंह के हाथों आयी मोदी और शाह की पर्ची से निकलकर बिना नया कुर्ता पाजामा सिलवाये ही अचानक मुख्यमंत्री बन गए मोहन जी को हुए भरम का मामला नहीं है, यह प्यादे से वजीर, सो भी वजीरेआला होकर उपजा व्यामोह का मनोविकार भी नहीं है कि वे अचानक खुद को जम्बूद्वीपे भारतखंडे के सर्वशक्तिमान नियंता समझने लगे हैं ; स्वयं को सबसे ऊपर, इतने ऊपर मान बैठे हैं कि उनके ऊपर न क़ानून है, न विधान, ना ही संविधान।
पहले उनके मौजूदा रूप – मुख्यमंत्री – को ही ले लें ; जिस संविधान के तहत वे जनप्रतिनिधि बने हैं, और “मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा ….. मैं भारत की संप्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा, मैं ….. सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार कार्य करूंगा’’ की शपथ लेकर जिस संविधान को लागू करने का वादा करके वे मुख्यमंत्री बने हैं, उस भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को संरक्षित किया गया है। इसमें प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी भी धर्म को स्वीकार करने या न करने, अनुसरण एवं प्रचार करने के लिए स्वतंत्र होगा। इतना ही नहीं, इसके अलावा और इस के साथ भारत का संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि “राज्य किसी भी धर्म विशेष का पक्ष नहीं लेगा, न उसे कोई विशेष सुविधा प्रदान करेगा।“ इस तरह प्रथम दृष्टि में ही यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका यह कथन भारत के नागरिक के नाते, भारत के संविधान के तहत निर्वाचित जनप्रतिनिधि तथा संविधान की शपथ लेकर पदासीन हुए प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाते एक सर्वथा अनुचित, असंवैधानिक कथन है।
इस तरह यह एक निर्विवाद तथ्य है कि मुख्यमंत्री के पद पर बैठे व्यक्ति का यह अनुचित और अनावश्यक बयान भारत के स्वतंत्रता संग्राम की भावना और संविधान के मूल तत्वों तथा ढाँचे को नुकसान और आघात पहुंचाने वाला है और जिस पद पर वे विराजमान हैं, उसकी भी अवमानना और अवज्ञा करने वाला है। सामान्यतः ऐसे बोलवचन दंडात्मक कार्यवाही के लिए काफी होते हैं, जिस पद पर बैठकर वे इन्हें बोल रहे हैं, उस पद से मुक्त किये जाने की उचित कार्यवाही के लिए समुचित आधार होते हैं ; मगर जब यह एक विशेष योजना के तहत कहा जा रहा हो, तो ऐसी कार्यवाहियों की उम्मीद करना ज्यादा ही उम्मीद करना होगा।
उनकी वैचारिक परवरिश जिस कुटुंब में हुई है, उसके विचार और धारणाओं को देखते हुए मोहन यादव द्वारा भारत के संविधान को अंगूठा दिखाने और मुंह चिढ़ाने का यह काम अचरज की बात नहीं है। आधुनिक भारत की अवधारणा और संविधान में वर्णित समता, समानता, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, भाईचारे और वैज्ञानिक रुझान विकसित करने जैसे इसके सभी लक्ष्यों से इस कुटुम्ब – आरएसएस – की कभी सहमति नहीं रही। सही बात तो यह है कि ये हमेशा इसके विरुद्ध ही रहे। अपने पूरे इतिहास में आरएसएस मौजूदा संविधान के निषेध की राय पर कायम रहा, हाल के वर्षों में सत्ता के सभी अंगों पर लगभग वर्चस्व कायम करने के बाद तो जैसे उसे ध्वस्त करने के लिए हाथ-मुंह धोकर ही पीछे पड़ गया है।
स्वाभाविक भी है। पहले भी कई बार कहा जा चुका है, बार-बार दोहराने में हर्ज नहीं कि भारत का संविधान एक ऐसा आधुनिक ग्रन्थ है, जो स्वतन्त्रता संग्राम की भट्टी में तपकर निकला है, जो इस महान संघर्ष के दौरान भारत के अवाम में चली बहस का मोटा-मोटा सार है। मोहन यादव का कुनबा आजादी की इस लड़ाई से न सिर्फ अलग रहा, बल्कि उसने आजादी सहित उसके बाद के हर प्रतीक का जमकर विरोध तक किया। इस संविधान का धिक्कार-तिरस्कार किया और उसकी जगह मनुस्मृति के आधार पर देश चलाने की मांग की। आज भी इस कुनबे का लक्ष्य यही है। दुरुस्त किये जाने योग्य अनेक कमियों के बावजूद भारत का संविधान एक ऐसा अनूठा दस्तावेज है, जो इस देश की कई हजार वर्ष पुरानी अनेकता में एकता और हर तरह की विविधता का समावेश करता है और उसे भविष्य में भी अक्षुण्ण बनाए रखने के प्रबंध करता है। अपनी कई सीमाओं के बावजूद इस संविधान की ही खूबी है, जिसने 1947 में अनेक राजों में विभाजित इस भूखंड को एक देश भारत में न सिर्फ एकजुट किया, बल्कि पिछले 77 वर्षों में उसकी इस एकजुटता को बनाए रखते हुए और अधिक मजबूत किया। इसलिए इस पर हमला दरअसल भारत की बुनियाद पर हमले से कम नहीं है। जिन पर संविधान की हिफाजत और उसे लागू करने का जिम्मा है, खुद उन्हीं के द्वारा ऐसा कहा जाना अतिरिक्त चिंता का विषय है।
बयान को देखकर लगता है कि बयानवीर सिर्फ भारत के संविधान से ही अपरिचित नहीं है, वे इसके ही विरुद्ध नहीं है, बल्कि भारत की कई हजार वर्ष पुरानी और वादे वादे जायते तत्वबोधः पर चलकर विकसित हुई समृद्ध धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराओं के बारे में भी कुछ नहीं जानते। सगुण और निर्गुण परम्परा का भी तो उनको भान तक नहीं है। जिस कथित हिन्दू धर्म के प्रतीकों को अपने क्षुद्र राजनीतिक इरादों से इस्तेमाल कर रहे हैं, उस हिन्दू धर्म की तीन प्रमुख धाराओं शाक्त, शैव और वैष्णव और उनके अंतर्गत आने वाली दर्जनों उपधाराओं और उनके बीच हुए तथा सदियों तक चले, आज भी जारी गलाकाट संघर्ष के बारे में उन्हें तनिक भी माहिती नहीं है। वे स्वयं उज्जैन से आते हैं, जो महांकाल के नाम से भी जाना जाता है, जिसे केंद्र बनाकर संस्कृत साहित्य में श्रेष्ठ सृजन करने वाले कालिदास शिव के सर्वश्रेष्ठ अनुयायी माने जाते हैं ; यह उज्जैन उस शैव परम्परा के प्राचीनतम केन्द्रों में से एक है, जो किसी अवतारवाद में यकीन नहीं रखता। जो शिव के अलावा और किसी देवी, देवता, ईश्वर, भगवान् को नहीं मानता। उन्हें नहीं पता कि शैव और वैष्णव धाराओं के बीच संघर्ष उतना ही पुराना है, जितना बाद में आया वैष्णव धर्म – और इसके नज़ारे अभी भी कुंभ के हरेक मेले में दिखते रहते हैं। प्राचीनतम कही जाने वाली और हिन्दू धार्मिक परम्पराओं में अत्यंत लोकप्रिय शाक्त धारा का तो लगता है, उन्होंने नाम तक नहीं सुना है। यह वह परम्परा है, जिसके चिन्ह और प्रमाण तो वैदिक संस्कृत बोलने वाले आर्यों से भी कहीं अधिक प्राचीन हड़प्पा सभ्यता में भी मिलते हैं। शाक्त दुनिया का एकमात्र ऐसा धर्म है, जो सृष्टि और विश्व का नियंता और निर्माता किसी पुरुष ईश्वर को नहीं मानता, उत्पत्ति का कारण मातृतत्व को मानता है और इसलिए सिर्फ देवियों की पूजा आराधना करता है।
इतनी दूर जाने में यदि उन्हें मुश्किल लगती थी, तो हाल के राम मन्दिर प्रसंग से ही कुछ सीख लेते ; मंदिर बनाने के लिए बनाई गयी समिति के प्रमुख चम्पत राय के बयान पर ही नजर डाल लेते, जिन्होंने खुलेआम कहा था कि “अयोध्या धाम में जो राम मन्दिर बन रहा है, वह सिर्फ रामानंदी सम्प्रदाय का है, शैव, शाक्त और संन्यासियों का नहीं है।“ उन्होंने इन धाराओं को ही “हमारे मंदिर से दूर रहें” की चेतावनी नहीं दी, बल्कि कृष्ण को एकमात्र आराध्य मानने वाले वल्लभाचार्य और निम्बार्क मतों को मानने वालों को भी चेताया था। इस सन्दर्भ के साथ जोड़कर देखें, तो मोहन यादव का यह बयान धरती के इस हिस्से की विविध धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं – जैन, बौद्ध, द्रविड़, अनार्य, आर्यसमाज, ब्रहमो समाज, आदिवासी आदि-इत्यादि पर अभी विचार न भी करें, तो – जिसे यह कुनबा हिन्दू धर्म कहता रहा है, उसके खिलाफ है, उनका भी निषेध है। इस तरह के बयानों को उस क्रोनोलोजी के साथ देखना होगा, जिसे इन मुख्यमंत्री के कुनबे ने अपना ग्रांड प्रोजेक्ट बनाया हुआ है। यह वह दुष्ट परियोजना है, जो ब्राह्मणवादी धर्म की यातनापूर्ण जकड़न के खिलाफ हिन्दू परम्पराओं के भीतर पिछली कई सदियों में चले सुधारवादी आंदोलनों तथा राजा राम मोहन राय, स्वामी विवेकानंद जैसे सुधारवादियों का भी नकार है। इस तरह कुल मिलाकर यह धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में ऐसी प्रतिक्रांति है, जिसके बाद कुछ भी साबुत नहीं बचने वाला है।
इसकी शुरुआत सावरकरी हिंदुत्व वाले हिन्दू राष्ट्र की बात से हुयी थी। पिछले 2-3 वर्षों में हिन्दू हट गया और उसकी जगह सनातन आ गया। आरएसएस जिस सनातन धर्म की स्थापना की बात करता है, वह भारतीय परम्पराओं के इस पूरे विकास क्रम और इस तरह खुद हिन्दू धर्म का निषेध है। उनका सनातन धर्म शुद्ध अर्थों में मनुस्मृति, गौतम स्मृति और नारद संहिताओं जैसी गैर-दार्शनिक और अधार्मिक किताबों में लिखी यंत्रणा पूर्ण समाज व्यवस्था और सती प्रथा जैसी बर्बरताओं की बहाली है और इस तरह कुछ हजार वर्षों के मंथन तथा संघर्षों के हासिल को छीनकर भारत को एक घुटन भरे बंद समाज में बदल देने की महा परियोजना है। स्वयं निजी जीवन में नास्तिक सावरकर और आरएसएस के गुरु कहे जाने वाले गोलवलकर सहित संघ के अनेक सरसंघचालक इसे लिखा-पढ़ी में कह चुके हैं।
यह एक नए ही तरह के सामाजिक ढाँचे और उसके अनुकूल नए ही तरह के धर्म को गढने की बात है, जिसका लक्ष्य एक बंद, यातनापूर्ण निजाम को कायम करना है, जहां न किसी तरह का लोकतंत्र होगा, ना ही किसी मत को मानने या न मानने की स्वतंत्रता होगी, चारों तरफ सिर्फ अन्धेरा ही अन्धेरा होगा। यह देश ऐसे अन्धकार युग को देख चुका है, जब बुद्ध की वैचारिक आभा से व्यापी प्रश्नाकुलता को दबाकर वर्णाश्रम की बेड़ियाँ कसकर बाँध दी गयी थी, जब समाज को अलग-अलग खांचों में बांटकर हाथ और दिमाग, श्रम और अध्ययन को एकदम एक दूसरे से अलग कर दिया गया था। इसकी कीमत सदियों को चुकानी पड़ी थी, क्योंकि इस देश में शोषण के कारगर औजार के रूप में गढ़े गये वर्णाश्रमी ब्राह्मणवादी धर्म के द्वारा समाज पर थोपी गयी जड़ता के विरूद्ध उपजा अंतर्विरोध और दर्शन तथा धर्म की भाषा में उसकी अभिव्यक्ति तथा उसके खिलाफ हुआ संघर्ष ही था, जो समय-समय पर भारत में अलग-अलग दार्शनिक परम्पराओं और उनके आधार पर नए-नए धर्मों के अस्तित्व में आने का कारण बना। लोकायत की समृद्ध परम्परा के अलावा जैन और बौद्ध और सबसे ताजा सिख धर्म इसी ऐतिहासिक संघर्ष के परिणाम थे। इन सबने अपने-अपने कालखण्ड में भारतीय समाज की जड़ता को तोड़ा, नतीजे में समाज ने आगे की तरफ प्रगति की। विज्ञान, गणित, कला, स्थापत्य, चिकित्सा विज्ञान, भाषा, व्याकरण, कृषि तथा व्यापार के क्षेत्रों में तेजी के साथ नयी खोजें, आविष्कार और अनुसंधान हुए। आठवीं-नवमी सदी में पसरे अन्धकार ने इन सबको रोक दिया और जो परिणाम निकला, वह इतिहास में दर्ज है।
बड़ी मुश्किल से जिससे निजात पायी थी, वही पतझड़ अब रोपा जा रहा है। यह सिर्फ वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए ही नहीं है, वह तो है ही, मगर उससे भी आगे का मामला है। इसे इसके निहितार्थों से जोड़कर ही समग्रता म देखा और समझा जा सकता है।
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।
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