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अमराराम : वाम संसदीय राजनीति में एक उभरती उम्मीद

सीकर लोकसभा सीट पर जब चुने हुए प्रत्याशी का नाम घोषित हुआ, तब एकबारगी सभी की नज़र उस नाम पर गई, जो राजस्थान के बाहर कम ही जाना जाता है। वह इंडिया गठबंधन के एक प्रत्याशी के तौर पर खड़े थे। उनकी पहचान सीपीआई-एम के साथ जुड़ी हुई है। वह केंद्रीय कमेटी के सदस्य हैं। लेकिन, राजस्थान में उन्हें एक किसान और लाल झंडे वाले नेता के तौर पर जाना जाता है।

अमरा राम ने भाजपा के प्रत्याशी सुमेधानंद को 72 हजार से अधिक वोटों से हराया है। यह एक पक्की जीत है। भाजपा प्रत्याशी आर्य समाज के नेताओं में से एक हैं। हिंदू धर्म की कुरीतियों के खिलाफ झंडा बुलंद करने वाला आर्य समाज अन्य समाज सुधार आंदोलन की तरह ही पतित होता गया है। धर्म सुधार में यदि धर्म तक ठहर जाये, तो उसकी हालत वैसी ही होती है, जैसी आर्य समाज की हुई है। उसने पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीसवीं सदी के शुरूआती दौर में धर्म के ठेकेदारों के खिलाफ खूब आंदोलन चलाया और मूर्तिपूजा का खुलकर विरोध किया। 1930 के बाद भारत की राजनीति में धार्मिक विभाजन की घुसपैठ ने आर्य समाज को भी विभाजित किया। आज खुद आर्य समाज हिंदू धर्म की उसी प्रतिक्रियावाद का हिस्सा हो गया है, जिसका कभी विरोध करता था। इसके मठाधीश भाजपा के मूर्धन्य नेताओं में से एक हो गये हैं और संसदीय राजनीति के बड़े खिलाड़ी बन गये हैं।

जब मैं अमरा राम के बारे में जानने के लिए खोजबीन कर रहा था, तो उससे इतना साफ हो गया था कि वे इतने भी गुमनाम नहीं हैं। वे राजस्थान की वाम राजनीति के सक्रिय नेताओं में से एक रहे हैं। 2013 में राजस्थान में जब वाम संगठनों का लोकतांत्रिक मोर्चा बनाया गया, जिसमें 7 पार्टियां शामिल थीं, तब अमरा राम को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करने के साथ इस मोर्चे का प्रचार किया गया था।

अमरा राम का जन्म 5 अगस्त, 1955 में हुआ था। उनका झुकाव कम्युनिस्ट नेतृत्व में चल रहे आंदोलनों की ओर था। उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का हिस्सा बनना चुना। उन्होंने वाम राजनीति से ही छात्र संघ के चुनाव में हिस्सा लेना शुरू किया और 1979 में सीकर के राजकीय श्री कल्याण कॉलेज के अध्यक्ष पद पर जीत हासिल की। उन्होंने पोस्ट ग्रेजुएशन परीक्षा पास किया, इसके बाद वह किसान आंदोलन की ओर गये। 1983 में वह ग्राम पंचायत के सरपंच चुने गये। 1993-98 और फिर 2003-08 के सत्र में क्रमशः धोंद और दातारामगढ़ से विधायक चुने गये। अमरा राम सीपीएम के राज्य सचिव हैं और अखिल भारतीय किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।

अमरा राम का सीकर से लोकसभा की सीट पर चुना जाना एक बड़ी घटना है। निश्चित ही इसमें कांग्रेस की भी एक बड़ी भूमिका है और संयोगवश ही यह सीट सीपीएम के पास आई। लेकिन, अमरा राम का जीतना संयोगवश नहीं है। राजवंशों और जमींदार भूस्वामियों की पकड़ वाले राज्य राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा का उदय इन्हीं समुदायों से आने वाले प्रतिनिधियों से हुआ। इस राज्य में आदिवासी, दलित और गरीब किसानों की स्थिति बेहद दयनीय रही है। यहां प्रिंसली स्टेट होने की वजह से किसानों का आंदोलन उस तरह नहीं उभरा जैसा कि उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में।

बिजौलिया किसान आंदोलन, जो 40 साल से अधिक समय तक चलता रहा, से राजस्थान में किसानों को गोलबंद होने का साहस मिला। इस आंदोलन ने अन्य प्रिंसली स्टेट के किसानों को भी आगे बढ़ने की प्रेरणा दी थी। इसमें से 1940 के दशक में शेखावटी किसान आंदोलन ने जाट किसानों को एकजुट होने की ओर कदम बढ़ा दिया। सीकर में किसान आंदोलन की शुरूआत हुई और 1955 तक चलती रही। आदिवासी समुदाय, खासकर भीलों का आंदोलन सबसे पहले जंगल उपज पर अधिकार और कर लगाने के मसले को लेकर हुआ। गुजरात और राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों में हिंसक झड़पों की शुरूआत 19वीं सदी के मध्य से शुरू हुई। भीलों का आंदोलन कभी भी रुका नहीं। वह रुक-रुक कर अपनी रणनीति बदलता हुआ 1940 तक चला और किसान आंदोलन का हिस्सा बन गया।

राजस्थान में वाम आंदोलन इन्हीं परम्पराओं का हिस्सा बनकर उभरा। 1970 के दशक से किसान आंदोलन में लगान, सूदखोरी और उत्पादन के मूल्य ही मुख्य मुद्दा बने रहे। जमीन पर हकदारी का मसला कमजोर हो गया। हालांकि, इसकी मांग उठती रही और इस संदर्भ में कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन भी देखे गये। किसानों की गोलबंदी करने, मुख्यतः किसानों के ऋण और उत्पादन का उचित मूल्य के आंदोलन को आगे बढ़ाने में अमराराम पर और सक्रिय रहे हैं। किसान ऋण योजना में किसानों से अतिरिक्त वसूली और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में उत्पादन के अनुमान के आधार पर मुआवजा, वे मुख्य मसले रहे, जिसमें अमरा राम के नेतृत्व में किसान आंदोलन तेज हुआ और किसानों को इससे लाभ मिला।

इसी तरह से नहरों द्वारा पानी की आपूर्ति की कमी और ट्यूबवेल के प्रयोग से किसानों की लागत में बढ़ोत्तरी का मसला उठाया गया। इससे किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी मिलने का रास्ता खुल गया। इस दिशा में किसानों को बिजली की आपूर्ति और उसकी लागत, बीज और खाद की आपूर्ति में समर्थन मूल्य वे मांगें थीं, जिससे किसानों के बीच वाम आंदोलन को लोकप्रियता हासिल हुई।

इन आंदोलनों का तात्कालिक असर चुनाव में मिले वोट पर नहीं दिखा। खासकर 2013 के विधानसभा चुनाव में वाम पार्टी को कोई भी सीट हासिल नहीं हुई। उस समय सीपीएम ने 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था। 2018 में दो सीटें हासिल हुईं। लेकिन, 2023 के चुनाव में एक बार फिर स्थिति खराब हो गई और कोई सीट हासिल नहीं हुई। लेकिन, 2024 में सीकर से अमरा राम का लोकसभा के लिए चुनकर आने से एक बार फिर से वाम राजनीति में उम्मीद जिंदा हुई है।

अमरा राम की विधानसभा सीटों पर जीत हासिल करना और कुल हासिल वोट से यह साफ है कि उनकी लोकप्रियता धनी और मध्यम किसानों के बीच है। वह किसान आंदोलन में सक्रिय रहते हुए निश्चित ही गरीब किसानों में भी सीमित ही सही, लोकप्रिय होंगे। लेकिन, जिस तेजी से बहुजन आदिवासी पार्टी की लोकप्रियता और वोट प्रतिशत बढ़ा है उस मुकाबले सीपीएम में वोट का प्रतिशत स्थिर नहीं दिखता है। ऐसे में, अमरा राम की यह जीत आने वाले समय तक टिक सकेगी, यह बहुत कुछ पार्टी की राजनीति, रणनीति और खुद अमरा राम की लोकप्रियता के बीच के रिश्तों पर निर्भर रहेगा।

निश्चित ही, संसदीय राजनीति में व्यक्ति की भूमिका तात्कालिक तौर पर एक निर्णायक कारक की तरह सामने आती है, बशर्ते वह कारक वोट के प्रतिशत को बढ़ाने वाला हो और उसकी रणनीति से वाकिफ हो। अमरा राम अपने लंबे संघर्षों से किसानों में एक लोकप्रिय नेता बने हैं। गठबंधन ने उनकी जीत को निश्चित ही आसान बनाने में एक भूमिका निभाई है। लेकिन, जीत के मुख्य किरदार खुद अमरा राम हैं। अमरा राम का अपना लाल झंडा है जिस पर जनता की पक्षधरता साफ-साफ दिखती है और निश्चित ही उनकी अपनी पार्टी पर किया गया वह भरोसा है, जिसके बूते वह राजस्थान में लाल झंडा लहराने में कामयाब रहे।

(आलेख : अंजनी कुमार)

(अंजनी कुमार लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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